Health service will not improve by increasing AIIMS only on paper, know why the mind of super doctors is breaking
06.08.2022
इस साल भी मेडिकल कॉलेजों में सुपर स्पेशिऐलिटी की काफी सीटें नहीं भर पाईं। यह तब है, जब सरकार लगातार मेडिकल कॉलेज खोल रही है, एम्स की संख्या भी बढ़ा दी गई है। लेकिन क्या इन सब में स्वास्थ्य सेवाएं ठीक से उपलब्ध हैं? कागजों पर जो एम्स और मेडिकल कॉलेज बढ़े, वे पारिभाषिक रूप से फंक्शनिंग नहीं हुए। लेकिन सिर्फ यही वजह नहीं है कि सुपर स्पेशिऐलिटी में सीटें नहीं भरीं। एम्स दिल्ली सुपर मॉडल प्रॉजेक्ट है, मगर इसी में ठीक से काम नहीं हो पा रहा है। कैंसर तक के ऑपरेशन में छह महीने बाद की डेट मिलती है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर बात करें तो कई और पहलू उभरते हैं। आइए जरा उन्हें भी देख लें
-दूसरी जगहों के एम्स और मेडिकल कॉलेजों में सुपर स्पेशलिस्ट काम कर सकते हैं, पर वहां मशीन है तो तकनीशियन नहीं हैं। तकनीशियन हैं तो नर्सिंग स्टाफ नहीं है। दोनों हैं तो ऑपरेशन के लिए ट्रेंड लोग नहीं हैं।
–सुपर स्पेशलिस्ट से बॉन्ड लिखवाया जाता है कि कम से कम तीन साल तो उसे सिर्फ रेफरल जॉब करनी है। मतलब डिग्री लेने के बाद कम से कम तीन साल तक वह अपनी डिग्री का यूज नहीं कर पाएगा, और जो कुछ भी करेगा, वह फ्री में ऐसी जगह पर बैठकर करेगा, जहां उसे कुछ करने की सुविधा ही नहीं है।
–सुपर स्पेशिऐलिटी की सीट छूटने की एक वजह यह भी है कि कार्डियक और प्लास्टिक सर्जरी की ब्रांचेस में सीट काफी हो गई हैं और मेडिकल कॉलेजों में उनकी उतनी सुविधा नहीं है। खासकर प्लास्टिक सर्जरी के लिए।
–स्वास्थ्य व्यवस्था के लचर होने में आरक्षण भी एक वजह है। डिफेंस, डीआरडीओ या साइंस रिसर्च में सरकारें मानती रही हैं कि इन चीजों से समझौता नहीं हो सकता तो क्या लोगों की जान इतनी सस्ती है?
–एमबीबीएस में प्रवेश तक तो आरक्षण का स्वागत है। लेकिन उसके बाद सबको एक सी सुविधाएं मिलती हैं, इसलिए पोस्ट ग्रैजुएशन और सुपर स्पेशिऐलिटी में आरक्षण नहीं होना चाहिए। एमबीबीएस के बाद ओपन एंट्री सिस्टम हो, ताकि डॉक्टरों का लेवल तो एक हो सके।
–मेडिकल कॉलेज रिसर्च के सबसे बड़े हब हैं। वहां लाखों मरीज आते हैं। अगर वहां सुपर स्पेशलिस्ट के लिए पूरी सुविधा हो तो नई-नई रिसर्च सामने आ सकती हैं। इलाज के नए-नए तरीके खोजे जा सकते हैं, लेकिन उनमें रिसर्च की पूरी सुविधा नहीं है।
एसी कमरों की नीतियां
अगर कोई सुपर स्पेशलिस्ट जॉइन भी कर ले तो पता चलता है कि वहां उससे कम डिग्री पाया हुआ जूनियर ही उसका सीनियर है। वहां भी प्रमोशन में आरक्षण का चक्कर है। ऐसे में डॉक्टर डीमोटिवेट होता है। जो इसे पहले से जानते हैं, वे एडमिशन नहीं लेते। जो किसी तरह से आ भी जाते हैं, उनके सामने दो रास्ते बचते हैं। या तो वे देश में कोई कॉरपोरेट अस्पताल जॉइन करें या देश ही छोड़ दें। जो बाकी बचते हैं, उनकी अगली समस्या काम करने के माहौल की होती है। सरकारी में सुविधा नहीं तो कॉरपोरेट में डॉक्टर पर टारगेट का प्रेशर डाला जाता है। इतनी सर्जरी, इतने टेस्ट, इतनी ओपीडी करो, तब इतने पैसे मिलेंगे। बहरहाल, स्थिति कैसे सुधरे, यह भी देखने वाली बात हैं :
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